भारत में नील की खेती का इतिहास 

भारत में नील की खेती की शुरुआत 1777 में बंगाल से हुई थी। उस समय भारत पर अंग्रेजों का शासन था और वे अपने फायदे के लिए भारतीय किसानों से जबरदस्ती नील की खेती करवाते थे। किसान चाहकर भी अपनी इच्छा से कोई दूसरी फसल नहीं उगा सकते थे क्योंकि अंग्रेज अधिकारियों का दबाव बहुत अधिक था। नील की खेती से किसानों को भले ही कोई खास लाभ नहीं होता था, लेकिन यूरोप में नील की भारी मांग थी और इसी कारण अंग्रेज इस पर जोर देते थे।
नील की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी, मौसम और खेत की तैयारी
नील की खेती के लिए बलुई मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है। इसकी बुवाई मानसून के मौसम में करना सबसे अच्छा रहता है क्योंकि इस मौसम में प्राकृतिक वर्षा के कारण सिंचाई की आवश्यकता कम हो जाती है और पौधे बेहतर तरीके से बढ़ते हैं। किसी भी फसल की तरह नील की खेती में भी सबसे पहले खेत तैयार करना जरूरी होता है। इसके लिए पहले खेत की गहरी जुताई की जाती है और फिर उसे कुछ दिनों के लिए यूं ही छोड़ दिया जाता है ताकि मिट्टी में प्राकृतिक रूप से सुधार हो सके।
कुछ दिन बाद खेत में गोबर खाद का छिड़काव किया जाता है और फिर एक बार रोटावेटर से जुताई की जाती है ताकि खाद अच्छे से मिल जाए। इसके बाद खेत में हल्का पानी दिया जाता है जिससे मिट्टी में नमी आ जाती है। फिर जब मिट्टी थोड़ा सूखने लगती है तब लेवलर की मदद से उसे समतल किया जाता है। खेत तैयार हो जाने के बाद एक-एक फीट की दूरी पर लाइनों को बनाया जाता है और इन लाइनों में ड्रिल मशीन की सहायता से नील के बीजों की बुवाई की जाती है। कुछ ही दिनों में नील के छोटे-छोटे पौधे निकलने लगते हैं और यही से फसल की वृद्धि शुरू हो जाती है।
नील की खेती में सिंचाई और खरपतवार नियंत्रण
नील की खेती में सिंचाई एक जरूरी प्रक्रिया है। सामान्यतः इस फसल में तीन से चार बार सिंचाई की आवश्यकता होती है, लेकिन यदि बुवाई मानसून के दौरान की गई हो, तो एक या दो बार सिंचाई से भी काम चल जाता है क्योंकि बारिश की वजह से पानी की जरूरत पूरी हो जाती है।
इसके साथ ही खरपतवार नियंत्रण पर विशेष ध्यान देना होता है क्योंकि खरपतवार नील की फसल को नुकसान पहुंचा सकते हैं। खरपतवार को हटाने के लिए पारंपरिक ‘गोरी’ विधि का उपयोग किया जाता है। पहली बार यह प्रक्रिया बुवाई के 25 दिन बाद की जाती है और इसके बाद हर 15 से 20 दिन के अंतराल पर खेत की निराई-गुड़ाई की जाती है ताकि फसल पर किसी भी तरह की झाड़ियां या घास हावी न हो पाए।
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नील की फसल की कटाई, सुखाना और बिक्री की प्रक्रिया
नील की फसल को पूरी तरह तैयार होने में करीब तीन से चार महीने का समय लगता है। जब फसल तैयार हो जाती है तब उसकी पत्तियों की कटाई की जाती है और फिर उन्हें छांव में सुखाया जाता है। छांव में सुखाने का मकसद यह होता है कि पत्तियों का रंग और गुणवत्ता बनी रहे। जब पत्तियां पूरी तरह सूख जाती हैं, तो उन्हें बाजार में बेचा जाता है
या उनसे नील निकाली जाती है। नील निकालने के बाद उसका उपयोग कपड़ों को रंगने के लिए किया जाता है। कई किसान प्रोसेसिंग कर खुद भी नील निकालते हैं और उसे ऊंची कीमत पर बेचते हैं जिससे उन्हें अच्छा खासा मुनाफा होता है।
नील की खेती की सच्चाई
एक समय में यूरोप में नील की इतनी अधिक मांग थी कि अंग्रेजों ने भारत में लाखों किसानों को जबरन इसकी खेती में झोंक दिया था। मांग और मुनाफा दोनों ही अधिक थे, इसलिए अंग्रेजों ने कभी इस खेती को रोका नहीं, चाहे किसानों को नुकसान ही क्यों न हो रहा ह।
इस खेती का सबसे बड़ा नुकसान यह था कि नील की खेती के बाद जमीन की उपजाऊ शक्ति खत्म हो जाती थी और वह बंजर हो जाती थी, जिस पर फिर कोई दूसरी फसल उगाना मुश्किल हो जाता था। उस समय यह खेती मजबूरी थी, लेकिन आज कई किसान अपने लाभ के लिए नील की खेती कर रहे हैं। बाजार में नील की अच्छी कीमत और प्रोसेसिंग के बाद उससे होने वाला लाभ देखकर अब किसान खुद ही इसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं, हालांकि यह जानते हुए कपर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।